हजारों साल के चीनी प्रभुत्व पर योगी दांव, सिल्क कॉम्प्लेक्स बढ़ाएगा मान

0

नवल कान्त सिन्हा
लखनऊ। वोकल फॉर लोकल, स्वदेशी, आत्मनिर्भर भारत जैसे नारों को अपने एक प्रोजेक्ट में साकार करेगी योगी सरकार। यह बात सुनने में अजीब लगे लेकिन सचमुच ऐसा होने जा रहा है। देश-दुनिया में बनारसी साड़ियों के लिए विख्यात पीएम नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में यूपी सरकार इंट्रीग्रेटेड सिल्क कॉम्प्लेक्स विकसित कर रही है। ओडीओपी योजना (एक जिला एक उत्पाद) के तहत करीब आठ करोड़ रुपये की लागत का यह प्रोजेक्ट है। इंट्रीग्रेटेड सिल्क काम्प्लेक्स से बुनकरों को बिचौलियों से मुक्ति मिलेगी। वाजिब दाम में धागा मिलने से लागत भी घटेगी ही। इतना ही यूपी के इस कदम से दूसरे राज्यों जैसे कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और पश्चिमी बंगाल के सिल्क व्यवसाय को जबरदस्त फायदा पहुंचेगा।
बनारसी साड़ी और अन्य उत्पादों के जरिए ये उद्योग इतना फैला है कि सिर्फ वाराणसी और मुबारकपुर में रेशमी धागों की सालाना खपत करीब 3000 मीट्रिक टन है। सिर्फ वाराणसी में करीब 7000 हैंडलूम और 800 पॉवरलूम हैं। खपत के मात्र एक फीसद हिस्से की आपूर्ति यूपी से होती है। बाकी करीब 1800 मीट्रिक टन धागा चीन, जापान, वियतनाम, कर्नाटक और पश्चिमी बंगाल से आता है। इस पूरे कारोबार में बिचौलिए हावी हैं। लिहाजा पूरे कारोबार का मोटा मुनाफा उनके हिस्से में आता है। गुणवत्ता की भी कोई गारंटी नहीं रहती। ऐसे में लागत तो अधिक आती ही है, गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। अपर मुख्य सचिव एमएसएमई नवनीत सहगल ने बताया कि 15 अगस्त के आसपास इस महत्वकांक्षी योजना का लोकार्पण भी हो जाएगा।

आंध्र, कर्नाटक, बंगाल के लिए भी फायदेमंद 
यूपी सरकार से उपलब्ध जानकारी के अनुसार करीब एक एकड़ में 2010-2011 में स्थापित सिल्क एक्सचेंज में प्रशासनिक भवन, नीलामी हाल, स्टोर, टेस्टिंग और मीटिंग हाल हैं। सिल्क एक्सचेंज में इसके अलावा धागों की शुद्धता की परख के लिए अत्याधुनिक लैब, तैयार माल के विक्रय के लिए स्टॉल्स भी उपलब्ध होंगे। ये बुनकरों को किराये पर दिए जाएंगे। सरकार इसमें बुनकरों की मांग के अनुसार प्रदेश के अलावा कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं पश्चिमी बंगाल से धागे उपलब्ध कराएगी। कर्नाटक सिल्क मार्केटिंग बोर्ड अपना एक काउंटर भी खोलेगा। इस बाबत सारी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी हैं।

सिल्क पर चीनी वर्चस्व टूटेगा
सिल्क रूट के बारे में हम सब जानते हैं। इसे प्राचीन चीनी सभ्यता के व्यापारिक मार्ग के रूप में जाना जाता है। दो सौ साल ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी के बीच हन राजवंश के शासन काल में रेशम का व्यापार बढ़ा। पहले रेशम के कारवाँ चीनी साम्राज्य के उत्तरी छोर से पश्चिम की ओर जाते थे। फिर मध्य एशिया के क़बीलों से संपर्क हुआ और धीरे-धीरे यह मार्ग चीन, मध्य एशिया, उत्तर भारत, आज के ईरान, इराक़ और सीरिया से होता हुआ रोम तक पहुंच गया। इस मार्ग पर केवल रेशम का व्यापार नहीं होता था बल्कि इससे जुड़े सभी लोग अपने-अपने उत्पादों का व्यापार करते थे। कालांतर में सड़क के रास्ते व्यापार करना ख़तरनाक हो गया तो यह व्यापार समुद्र के रास्ते होने लगा था।

यूपी में रेशम उत्पादन बढ़ा
रेशम उत्पादन को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास
लोकल फ़ॉर वोकल के नारे के अनुरूप स्वदेशी को प्रोत्साहित करने के लिए प्रदेश सरकार रेशम के उत्पादन में प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाएगी। हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में खासी प्रगति भी हुई है। प्रदेश से उत्तराखंड के अलग होने के बाद यहां का रेशम उत्पादन घटकर 22 से 23 मीट्रिक टन रह गया था। अब यह बढ़कर 350 मीट्रिक टन हो गया है। फिलहाल कृषि जलवायु क्षेत्र की अनुकूलता के अनुसार प्रदेश के 57 जिलों में रेशम की खेती होती है। खासकर तराई में शहतूत, बुंदेलखंड, विंध्य और यमुना के किनारे के कुछ जिलों में टशर एरी रेशम का उत्पादन होता है। प्रदेश में कोकून से धागा बनाने के लिए 15 इकाइयों की स्थापना हो रही है। इससे सालाना करीब 54000 धागा उत्पादित होगा। इस धागे का विक्रय भी सिल्क एक्सचेंज के माध्यम से होगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here