(NRP) 25.01.2016
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष सर्वसम्मति से अध्यक्ष बने अमित शाह का तकनीकी रूप से यह पहला संपूर्ण कार्यकाल होगा, क्योंकि 2014 में जब वो अध्यक्ष बने थे, तो उनका कार्यकाल बीच में ही शुरु हुआ था, तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह के इस्तीफे के कारण. दरअसल वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश में लोकसभा की अस्सी सीटों में से 71 पर पार्टी को विजय दिलाकर तब बीजेपी महासचिव रहे अमित शाह ने चुनावी रणनीतिकार के तौर पर अपना झंडा गाड़ दिया था और उसी की परिणती हुई थी पचास वर्ष की आयु में शाह के बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के तौर पर.
2014 की उसी जबरदस्त कामयाबी के बाद अमित शाह की जय जयकार पार्टी के अंदर शुरू हुई थी. अमित शाह को मास्टर स्ट्रटेजिस्ट करार दिया गया, उनके चुनावी कौशल की दाद दी गई. खास बात ये थी कि यूपी में अपना रणनीतिक कौशल दिखाने के लिए अमित शाह ने समय लिया महज ग्यारह महीनों का. शाह को 31 मार्च 2013 को बीजेपी के केंद्रीय संगठन में महासचिव का दर्जा दिया गया था और उसके दो महीने बाद यानी 19 मई 2013 को बनाया गया उत्तर प्रदेश का प्रभारी. यूपी में दिखाये गये धमाकेदार प्रदर्शन के कारण ही अमित शाह पहली बार बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर ही उन्हें इस बार फिर से अध्यक्ष की कुर्सी सौंपी गई है.
हालांकि 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान यूपी में अपनी धमक दिखाने के काफी पहले अमित शाह को मास्टर स्ट्रेटेजिस्ट का तमगा हासिल हो चुका था. क्यों और कैसे, ये जानने के लिए जाना पड़ेगा अमित शाह के सियासी सफर के शुरुआती दिनों में. 22 अक्टूबर 1964 को मुंबई में वैष्णव परिवार में जन्मे अमित शाह का पैतृक घर गांधीनगर जिले के मानसा कस्बे में है. लेकिन मानसा में आरंभिक पढ़ाई करने के बाद अमित शाह गुजरात के सबसे बड़े शहर अहमदाबाद में आ गये थे और यही रहते हुए उन्होंने बीएससी बायोकेमिस्ट्री की पढ़ाई की. कॉलेज के दिनों में ही अमित शाह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी से जुड़े. इससे पहले उनका जुड़ाव 14 वर्ष की आयु में आरएसएस से बतौर स्वयंसेवक हो चुका था. विद्यार्थी परिषद में काम करते हुए ही अमित शाह की छवि कुशल संगठनकर्ता की बनी. 1982 से 1984 के बीच वो परिषद की अहमदाबाद शहर इकाई में सहमंत्री और मंत्री रहे. इसके बाद वो बीजेपी की यूथ विंग यानी भारतीय जनता युवा मोर्चा से जुड़े. 1984 में वो अहमदाबाद के नाराणपुरा वार्ड में युवा मोर्चा के मंत्री बने. यहां से आगे बढ़ते-बढ़ते वो राज्य इकाई में मंत्री, उपाध्यक्ष और महामंत्री बने और फिर 1997 में भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष. अमित शाह इस बीच बीजेपी की अहमदाबाद शहर इकाई, जो कर्णावती महानगर इकाई के तौर पर जानी जाती है, उससे भी जुड़े और 1991 से 1993 के बीच इस इकाई में मंत्री रहे.
मोदी से अमित शाह की पहली मुलाकात 1982 में हुई, जब वो महज 17 साल के थे. शाह आरएसएस में सक्रिय थे, जबकि मोदी बतौर प्रचारक युवाओं के बीच संघ का दायरा बढ़ाने में लगे थे. इसके बाद से ही अमित शाह मोदी के करीब आते चले गये. अमित शाह 1987 में दीनदयाल शोध संस्थान की गुजरात इकाई में कोषाध्यक्ष बने, जिसकी बैठकों में बतौर गार्जियन या पालक नरेंद्र मोदी अक्सर आया करते थे. 1987 में जब नरेंद्र मोदी की इंट्री संघ से बीजेपी में हुई, उस वक्त तक अमित शाह की छवि एक कर्मठ कार्यकर्ता के तौर पर बन चुकी थी.
गुजरात में जब 1990 में विधानसभा चुनाव हो रहे थे, उस वक्त मोदी को अमित शाह की संगठन क्षमता पर गहरा यकीन हो गया. इन चुनावों में बीजेपी की मतदाताओं के बीच पैठ बनाने में अमित शाह ने भूमिका अदा की. इन्हीं चुनावों में बतौर गुजरात बीजेपी संगठन महामंत्री मोदी की भी धाक जमनी शुरू हुई. 1991 में जब लोकसभा के चुनाव हुए और आडवाणी गांधीनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े, तो अमित शाह ने प्रचार में योगदान दिया. 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी गांधीनगर से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए आए, तो अमित शाह उनके चुनाव प्रभारी बने. उसके बाद वो 1998,1999, 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में आडवाणी के चुनाव प्रभारी रहे गांधीनगर लोकसभा सीट के लिए. दरअसल गांधीनगर लोकसभा सीट का एक बड़ा हिस्सा अमित शाह की अपनी विधानसभा सीट सरखेज का था, जहां से जोरदार मार्जिन दिलाते रहे थे अमित शाह. चुनाव प्रभारी की भूमिका में अमित शाह आडवाणी के भी काफी करीब आए.
अमित शाह के सियासी कैरियर में एक बड़ा मुकाम तब आया, जब 1995 में केशुभाई पटेल की अगुआई में गुजरात में बीजेपी की पहली सरकार बनी. इस उपलब्धि में अमित शाह के मेंटर नरेंद्र मोदी की बड़ी भूमिका रही थी. जब सरकारी निगमों में अध्यक्ष नियुक्त करने की बारी आई, तो अमित शाह को राज्य सरकार की एक महत्वपूर्ण संस्था गुजरात स्टेट फाइनेंशियल कॉरपोरेशन का अध्यक्ष बनाया गया. वर्ष 1995 में अमित शाह को जब ये पद मिला, उस समय उनकी उम्र थी महज 31 साल और वो इस संस्था के इतिहास में सबसे कम उम्र के अध्यक्ष बने थे. शाह ने अपनी प्रबंध कुशलता के बल पर इस संस्था को लाभ में पहुंचा दिया, लेकिन उनका ये कार्यकाल लंबा नहीं चला. 16 सितंबर 1995 से 15 अक्टूबर 1996 यानी महज तेरह महीने का रहा ये कार्यकाल. इसी दौरान राज्य में शंकरसिंह वाघेला ने विद्रोह कर दिया था, जिसकी वजह से केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी, सुरेश मेहता थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री बने और आखिरकार पार्टी तोड़कर वाघेला खुद 23 अक्टूबर 1996 को मुख्यमंत्री बन बैठे, कांग्रेस के सहयोग के साथ.
गुजरात में जब 1995 में वाघेला ने विद्रोह किया, तो इसका ठीकरा फूटा नरेंद्र मोदी के उपर. मोदी को गुजरात से राजनीतिक वनवास मिला और वो दिल्ली चले गये. हालांकि मोदी के दिल्ली चले जाने के बाद भी उनका और अमित शाह का रिश्ता गहरा बना रहा. मोदी के दिल्ली चले जाने के बाद भी अमित शाह गुजरात में कमजोर नहीं पड़े. इसका सबूत मिला 1997 के फरवरी महीने में, जब अहमदाबाद की सरखेज विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव हुए. दरअसल बीजेपी के वरिष्ठ नेता और राज्य विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष हरिश्चंद्र पटेल की मौत के कारण ये सीट खाली हुई थी. राज्य में तब तक बीजेपी में दो फाड़ हो चुकी थी और शंकरसिंह वाघेला के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से सरकार चल रही थी. इस चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में बीजेपी ने अमित शाह को अपने प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में उतारा. आठ फरवरी 1997 को चुनाव हुए और जब ग्यारह फरवरी को नतीजे घोषित किये गये, तो अमित शाह कांग्रेसी उम्मीदवार दिनेश ठाकोर को 24482 वोटों के मार्जिन से हराकर विजयी हुए. इसके बाद से अमित शाह ने सरखेज से कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1998 में जहां वो 132477 मतों के मार्जिन से चुनाव जीते, तो 2002 में 158036 मतों के मार्जिन से. 2007 में तो जीत का ये मार्जिन बढ़कर 235823 मतों का हो गया. विधानसभा चुनावों में दो लाख पैंतीस हजार मतों से भी अधिक के मार्जिन से जीत, ये साबित करता है कि अपने विधानसभा क्षेत्र में अमित शाह की पकड़ किस कदर थी. ध्यान रहे कि इसी सरखेज सीट के अंदर जुहापुरा भी आता था, जो अहमदाबाद शहर में मुस्लिम समुदाय का सबसे बड़ा रिहाइयी इलाका है.
मोदी जब गुजरात में अक्टूबर 2001 में बतौर मुख्यमंत्री वापस लौटे, उस वक्त अमित शाह न सिर्फ दूसरी बार बीजेपी विधायक बन चुके थे, बल्कि पार्टी की राज्य इकाई में उपाध्यक्ष भी थे. मोदी के करीबी होने के कारण, 1998 में जब केशुभाई पटेल की सरकार दोबारा आई, तो अमित शाह को न तो मंत्रिमंडल में जगह मिली और न ही किसी बोर्ड-निगम में. केशुभाई से अमित शाह के संबंध तनावपूर्ण थे और इसका कारण था मोदी से उनकी नजदीकी. हालांकि मोदी ने भी जब अक्टूबर 2001 में अपना पहला मंत्रिमंडल बनाया, तो इसमें अमित शाह को नहीं लिया. अमित शाह संगठन में ही रहे और जब फरवरी 2002 में राजकोट-2 सीट से मोदी अपना पहला चुनाव लड़े, तो उस उपचुनाव में मोदी के चुनाव प्रभारी बने अमित शाह. मोदी को जीत मिली, उसके तीन दिन बाद ही गुजरात में गोधरा कांड के बाद दंगे भड़क उठे और फिर जब समय से पहले ही दिसंबर 2002 में विधानसभा चुनाव हुए और बीजेपी को जीत मिली, तो मोदी के नये मंत्रिमंडल में अमित शाह को भी जगह मिली. मोदी गृह विभाग के कैबिनेट मंत्री खुद रहे और इसी गृह विभाग में राज्य मंत्री बनाकर अमित शाह को अपने ठीक नीचे रख लिया. गृह विभाग के अलावा यातायात, मद्यनिषेध और आबकारी खाते का भी प्रभार रहा अमित शाह के पास बतौर राज्य मंत्री.
अमित शाह न सिर्फ इस दौर में लगातार मोदी का विश्वास जीतते गये, बल्कि ताकतवर भी बनते गये. नतीजा ये हुआ कि जब 2007 में विधानसभा चुनावों में जीत के बाद एक बार फिर से मोदी की अगुआई में गुजरात में बीजेपी की सरकार बनी, तो अमित शाह गृह राज्य मंत्री के तौर पर तो कायम रहे ही, इसके अलावा ग्यारह और विभागों के मंत्री भी बने. ये विभाग थे- ट्रांसपोर्ट, पुलिस हाउसिंग, बोर्डर सिक्यूरिटी, सिविल डिफेंस, ग्राम रक्षक दल, होम गार्ड, जेल, मद्यनिषेध, आबकारी, विधि व न्याय और संसदीय कार्य. ये मोदी मंत्रिमंडल में अमित शाह के बढ़ते रसूख का साफ सबूत तो था ही, ये भी बताता था कि आखिर अमित शाह मोदी के कितने करीब हैं.
हालांकि इसी दौर में अमित शाह विवादों में भी घिरे. सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले की जांच जब सीबीआई के पास गई, तो अमित शाह को भी आरोपी बनाकर सीबीआई ने अदालत में चार्जशीट दाखिल कर दी. ऐसे में 24 जुलाई 2010 को अमित शाह ने मोदी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और अगले दिन सीबीआई के सामने सरेंडर कर दिया. इसके बाद अमित शाह को अगले तीन महीने साबरमती सेंट्रल जेल में गुजारने पड़े और फिर वो 29 अक्टूबर 2010 को गुजरात हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद जेल से रिहा हुए. हालांकि तुरंत बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने उनकी जमानत में शर्त डाल दी कि वो गुजरात में रह नहीं सकते. आखिरकार ये शर्त 27 सितंबर 2012 को सुप्रीम कोर्ट ने हटा ली और उसके बाद अमित शाह गुजरात लौटे और फिर लड़े 2012 का विधानसभा चुनाव. इस बार अमित शाह का चुनाव क्षेत्र था अहमदाबाद शहर का नाराणपुरा, जो उनकी पुरानी विधानसभा सीट सरखेज का ही एक हिस्सा था और नये सीमांकन के बाद अस्तित्व में आया था. इस चुनाव में भी अमित शाह ने कांग्रेसी उम्मीदवार जीतु पटेल पर 63335 मतों के मार्जिन से जीत हासिल की. चूंकि अमित शाह पर सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति मुठभेड़ मामले में केस चल रहा था, इसलिए मोदी के नये मंत्रिमंडल में अमित शाह को जगह नहीं मिली. लेकिन मोदी से उनकी नजदीकी और चुनावी कौशल का फायदा तब मिला, जब 31 मार्च 2013 को उन्हें बीजेपी के केंद्रीय संगठन में महासचिव का पद मिल गया. उस जिम्मेदारी के बाद अमित शाह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है और यूपी में बीजेपी के लिए चाणक्य की भूमिका निभाते हुए पार्टी में नई जान फूंक दी, जिसका नतीजा शानदार परिणामों के तौर पर मिला. हालात ऐसे बने कि बीजेपी जहां राज्य में 71 सीटें हासिल कर पाई, वही दो सीटें सहयोगियों के खाते में आई. बहुजन समाज पार्टी का खाता तक नहीं खुला. जहां तक समाजवादी पार्टी का सवाल है, तो उसमें भी सिर्फ मुलायम और उनके परिवार के सदस्य ही अपनी सीट बचाने में कामयाब हो पाए. कांग्रेस में भी यही हाल रहा, जहां सिर्फ सोनिया गांधी रायबरेली से और राहुल गांधी अमेठी से चुनाव जीत पाए. समाजवादी पार्टी में उसके सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव मैनपुरी और आजमगढ़ से, उनकी बहू डिंपल यादव कन्नौज से, चचेरे भाई धर्मेद्र यादव बदायूं से तो भतीजे अक्षय यादव फिरोजाबाद से चुनाव जीत पाए. बीएसपी की तरह अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल का भी खाता यूपी में नहीं खुल पाया. अजीत सिंह को अमित शाह ने पूर्व आईपीएस अधिकारी सत्यपाल सिंह के जरिये बागपत से हरवा दिया. जाहिर है, इस प्रदर्शन के साथ अमित शाह जहां बीजेपी को उत्तर प्रदेश की सियासत में शीर्ष पर लेकर गये, वही तमाम विपक्षी पार्टियों को धरातल पर धकेल गये. इस शानदार प्रदर्शन के कारण ही उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनीति का चाणक्य भी कहा जाने लगा, जहां से महज कुछ महीनों के अंदर वो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन बैठे.
राजनीतिक व चुनावी सफलताओं के अलावा अमित शाह ने खेल और सहकारिता के मामले में भी अपना डंका पिछले दो दशक में बजाया. एक समय गुजरात की तमाम सहकारी इकाइयों और खेल संगठनों पर कांग्रेस का कब्जा होता था. लेकिन अमित शाह ने एक के बाद एक सभी सहकारी संस्थाओं और प्रमुख खेल संगठनों पर बीजेपी का कब्जा अभियान शुरु कर दिया. परिणाम ये हुआ कि सहकारी क्षेत्र के सबसे बड़े संगठन गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन यानी जीसीएमएमएफ पर बीजेपी का नियंत्रण हो चुका है, तो गुजरात में खेल की दुनिया के सबसे रसूखदार संगठन गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन यानी जीसीए पर भी. एक बड़े तख्तापलट में 15 सितंबर 2009 को जीसीए का अध्यक्ष अमित शाह ने नरेंद्र मोदी को बनवा दिया, तो खुद इस संस्था के उपाध्यक्ष बन बैठे.
गौरतलब है कि मोदी मंत्रिमंडल में पहली बार जगह पाने के ठीक पहले करीब तीन साल तक अमित शाह अहमदाबाद डिस्ट्रीक्ट कोऑपरेटिव बैंक के अध्यक्ष रहे थे और अब भी इस बैंक के निदेशक हैं. दरअसल सहकारी क्षेत्र पर कब्जे के अभियान में अमित शाह का ये पहला बड़ा पड़ाव था. 2005 से वो गुजरात स्टेट कोऑपरेटिव बैंक के भी डायरेक्टर हैं.
अमित शाह 2006 से 2010 के बीच चार साल तक गुजरात स्टेट चेस एसोसिएशन के भी अध्यक्ष रहे. शायद उनका यही अनुभव सामान्य शतरंज की बिसात से आगे बढ़कर राजनीतित शतरंज की बिसात पर लगातार काम आ रहा है. इसका एक नजारा उन्होंने 2009 में भी दिखाया था, जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन केंद्रीय कपड़ा मंत्री शंकरसिंह वाघेला को उस गोधरा लोकसभा सीट पर अपेक्षाकृत कमजोर उम्मीदवार प्रभातसिंह चौहाण के सामने हरवा दिया था, दो निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर. वाघेला को पता तक नहीं चला और वो चुनाव हार गये. शाह की ऐसी सियासी चालबाजियों के सैकड़ों किस्से गुजरात के राजनीतिक सर्किल में हैं और यूपी में भी. सियासी शतरंज की बिसात पर अपनी चाल लगातार चलते हुए अमित शाह 9 जुलाई 2014 को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने, जब केंद्रीय कैबिनेट में गृह मंत्री की जिम्मेदारी संभालने के बाद राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा. (एबीपी न्यूज़ )
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