अंकोरवाट मंदिर परिसर कम्बोडिया का इतिहास और 360 डिग्री वीआर वीडियो

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दुनिया का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर ही नहीं वरन पूरी दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्थल अगर कोई है तो वो है अंकोरवाट। ख़ास बात यह कि यह हिन्दू मंदिर परिसर भारत में नहीं बल्कि कम्बोडिया में है। यह मंदिर परिसर 402 एकड़ में फैला हुआ है। यह मंदिर परिसर कंबोडिया के अंकोर में है. इसका प्राचीन नाम यशोधरपुर है।
इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (1112 से  53 ईस्वी) के शासनकाल में हुआ था। मीकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में बना यह मंदिर आज भी संसार का सबसे बड़ा मंदिर है, जो सैकड़ों वर्ग मील में फैला हुआ है। राष्ट्र के लिए सम्मान के प्रतीक इस मंदिर को कंबोडिया के राष्ट्रध्वज में भी स्थान दिया गया है। यह मन्दिर मेरु पर्वत का भी प्रतीक है। इसकी दीवारों पर भारतीय हिंदू धर्म ग्रंथों के प्रसंगों का चित्रण है। इन प्रसंगों में अप्सराएं चित्रित हैं। असुरों और देवताओं के बीच समुद्र मन्थन का दृश्य भी दिखाया गया है। विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थानों में से एक होने के साथ ही यह मंदिर यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है।
अंग्कोरथोम और अंग्कोरवात प्राचीन कंबुज की राजधानी और उसके मंदिरों के भग्नावशेष का विस्तार। वर्तमान कंबोडिया के उत्तरी भाग को ‘कंबुज’ बोला जाता है। कुछ विद्वान भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर बसने वाले कंबोजों का संबंध भी इस प्राचीन भारतीय उपनिवेश से बताते हैं। अनुश्रुति के अनुसार इस राज्य का संस्थापक कौंडिन्य ब्राह्मण था, जिसका नाम वहाँ के एक संस्कृत अभिलेख में मिला है। नवीं शताब्दी ईसवी में जयवर्मा तृतीय कंबुज का राजा हुआ और उसी ने लगभग 860 ईसवी में अंग्कोरथोम (थोम का अर्थ ‘राजधानी’ है) नामक अपनी राजधानी की नींव डाली। राजधानी का निर्माण 40 वर्षों तक बनती रही और 900 ई. के लगभग तैयार हुई। उसके निर्माण के संबंध में कंबुज के साहित्य में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है।

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पश्चिम के सीमावर्ती थाई लोग पहले कंबुज के समेर साम्राज्य के अधीन थे लेकिन चौदहवीं सदी के मध्य उन्होंने कंबुज पर आक्रमण करना आरंभ किया और अंग्कोरथोम को बारबार जीता और लूटा। तब लाचार होकर ख्मेरों को अपनी वह राजधानी छोड़ देनी पड़ी। फिर धीरे-धीरे बाँस के वनों की बाढ़ ने इस महान नगर को सभ्य जगत से अलग कर दिया। उसकी सत्ता अंधकार में विलीन हो गई। नगर भी अधिकतर टूटकर खंडहर हो गया। उन्नीसवीं सदी के अंत में एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने पाँच दिनों की नौका यात्रा के बाद उस नगर और उसके खंडहरों का पुनरुद्धार किया।
आज का अंग्कोरथोम एक विशाल नगर का खंडहर है। उसके चारों ओर 330 फुट चौड़ी खाई है, जो पानी से भरी रहती थी। नगर और खाई के बीच एक विशाल वर्गाकार प्राचीर नगर की रक्षा करती है। प्राचीर में अनेक भव्य और विशाल महाद्वार बने हैं। विभिन्न द्वारों से पाँच विभिन्न राजपथ नगर के मध्य तक पहुँचते हैं। विभिन्न आकृतियों वाले सरोवरों के खंडहर आज भी अपनी भव्यता की प्रशस्ति गाते हैं। नगर के ठीक बीचोबीच शिवजी का एक विशाल मंदिर है, जिसके तीन भाग हैं। प्रत्येक भाग में एक ऊँचा शिखर है। मध्य शिखर की ऊँचाई लगभग 150 फुट है। इस ऊँचे शिखरों के चारों ओर अनेक छोटे-छोटे शिखर बने हैं जो संख्या में लगभग 50 हैं। इन शिखरों के चारों ओर समाधिस्थ शिव की मूर्तियाँ स्थापित हैं। मंदिर की विशालता और निर्माण कला आश्चर्यजनक है। उसकी दीवारों को पशु, पक्षी, पुष्प एवं नृत्यांगनाओं जैसी विभिन्न आकृतियों से अलंकृत किया गया है। उस ज़माने में बने इस मंदिर वास्तुकला देख पूरी दुनिया की आँखे फटी रह जाती हैं.
बारहवीं शताब्दी के लगभग सूर्यवर्मा द्वितीय ने अंग्कोरथोम में विष्णु का एक विशाल मंदिर बनवाया। इस मंदिर की रक्षा भी एक चतुर्दिक खाई करती है, जिसकी चौड़ाई लगभग 700 फुट है। दूर से यह खाई झील के समान दृष्टिगोचर होती है। मंदिर के पश्चिम की ओर इस खाई को पार करने के लिए एक पुल बना हुआ है। पुल के पार मंदिर में प्रवेश के लिए एक विशाल द्वार निर्मित है, जो लगभग एक हज़ार फुट चौड़ा है। इसकी दीवारों पर समस्त रामायण मूर्तियों में अंकित है। इस मंदिर को देखने से ज्ञात होता है कि विदेशों में जाकर भी प्रवासी कलाकारों ने भारतीय कला को जीवित रखा था। इनसे स्पष्ट होता है कि अंग्कोरथोम, जिस कंबुज देश की राजधानी था, उसमें विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश आदि देवताओं की पूजा प्रचलित थी। इन मंदिरों के निर्माण में जिस कला का अनुकरण हुआ है, वह भारतीय गुप्त कला से प्रभावित लगती है। एक अभिलेख से पता चलता  है कि यशोधरपुर का संस्थापक नरेश यशोवर्मा ‘अर्जुन और भीम जैसा वीर, सुश्रुत जैसा विद्वान् तथा शिल्प, भाषा, लिपि एवं नृत्य कला में पारंगत था।’ उसने अंग्कोरथोम और अंग्कोरवात के अतिरिक्त कंबुज के अनेक राज्य स्थानों में भी आश्रम स्थापित किए, जहाँ रामायण, महाभारत, पुराण तथा अन्य भारतीय ग्रंथों का अध्ययन अध्यापन होता था। अंग्कोरवात के हिंदू मंदिरों पर बाद में बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा और कालांतर में उनमें बौद्ध भिक्षुओं ने निवास भी किया। अंगकोरथोम और अंग्कोरवात में बीसवीं सदी के आरंभ में जो पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे ख्मेरो के धार्मिक विश्वासों, कलाकृतियों और भारतीय परंपराओं की प्रवासगत परिस्थितियों पर बहुत प्रकाश पड़ा है।
ख्मेर शास्त्रीय शैली से प्रभावित स्थापत्य वाले इस मंदिर का निर्माण कार्य सूर्यवर्मन द्वितीय ने प्रारम्भ किया परन्तु वे इसे पूर्ण नहीं कर सके। मंदिर का कार्य उनके भानजे एवं उत्तराधिकारी धरणीन्द्रवर्मन के शासनकाल में सम्पूर्ण हुआ। मिश्र एवं मेक्सिको के स्टेप पिरामिडों की तरह यह सीढ़ी पर उठता गया है। इसका मूल शिखर लगभग 64 मीटर ऊँचा है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी आठों शिखर 54 मीटर उँचे हैं। मंदिर साढ़े तीन किलोमीटर लम्बी पत्थर की दिवार से घिरा हुआ था, उसके बाहर ३० मीटर खुली भूमि और फिर बाहर १९० मीटर चौडी खाई है। विद्वानों के अनुसार यह चोल वंश के मन्दिरों से मिलता जुलता है। दक्षिण पश्चिम में स्थित ग्रन्थालय के साथ ही इस मंदिर में तीन वीथियाँ हैं, जिसमें अन्दर वाली अधिक ऊंचाई पर हैं। निर्माण के कुछ ही वर्ष पश्चात चम्पा राज्य ने इस नगर को लूटा। उसके उपरान्त राजा जयवर्मन-7 ने नगर को कुछ किलोमीटर उत्तर में पुनर्स्थापित किया। 14वीं या 15वीं शताब्दी में थेरवाद बौद्ध लोगों ने इसे अपने नियन्त्रण में ले लिया। मंदिर के गलियारों में तत्कालीन सम्राट, बलि-वामन, स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत, हरिवंश पुराण तथा रामायण से संबद्ध अनेक शिलाचित्र हैं। यहाँ के शिलाचित्रों में रूपायित राम कथा बहुत संक्षिप्त है।

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