जिस मंदिर में दर्शन करते हैं, कभी गौर किया उसके आर्किटेक्चर पर !

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नटवर गोयल
लखनऊ। मेरी परवरिश उस शहर में हुई, जिसे मंदिरों का शहर कहा जाता है। जहां कण कण में शंकर हैं। मैं बात कर रहा हूं वाराणसी की। इस शहर से ही मेरे अंदर मंदिर जाने के संस्कार पैदा किए और वास्तुकला को समझने की रुचि मेरे अंदर शुरू से थी। मुझको लगता है पिछले कुछ वर्षों में युवाओं में मंदिर जाने की ललक तो पैदा हुई है लेकिन बहुत कम मंदिर की वास्तुकला को समझते होंगे। इसलिए मैं अपने इस लेख में कुछ सामान्य जानकारी साझा कर रहा हूं कि युवा मंदिर की वास्तुकला को भी समझ सकें।
भारतीय स्थापत्य में हिन्दू मन्दिर का विशेष स्थान है। हिन्दू मंदिर में अन्दर एक गर्भगृह होता है, जिसमें मुख्य देवता की मूर्ति स्थापित होती है। गर्भगृह के ऊपर टॉवरनुमा रचना होती है जिसे शिखर या विमान कहते हैं। मन्दिर के गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा के लिये स्थान होता है। इसके अलावा मंदिर में सभा के लिए कक्ष हो सकता है।
मन्दिर शब्द संस्कृत वाङ्मय में अधिक प्राचीन नहीं है। महाकाव्य और सूत्रग्रन्थों में मंदिर की अपेक्षा देवालय, देवायतन, देवकुल, देवगृह आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। मंदिर का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। शाखांयन स्त्रोत सूत्र में प्रासाद को दीवारों, छत और खिड़कियों से युक्त कहा गया है। प्रारंभिक मंदिरों का वास्तु विन्यास बौद्ध बिहारों से प्रभावित था। इनकी छत चपटी और इनमें गर्भगृह होता था। मंदिरों में रूप विधान की कल्पना की गई और कलाकारों ने मंदिरों को साकार रूप प्रदान करने के साथ ही देहरूप में स्थापित किया। चौथी सदी में भागवत धर्म के अभ्युदय के पश्चात (इष्टदेव) भगवान की प्रतिमा स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। अतएव वैष्णव मतानुयायी मंदिर निर्माण करने लगे।
साँची का दो स्तम्भयुक्त कमरे वाला मंदिर गुप्तमंदिर के प्रथम चरण का माना जाता है। बाद में गुप्त काल में वृहदस्तर पर मंदिरों का निर्माण किया गया, जिनमें वैष्णव तथा शैव दोनों धर्मो के मंदिर हैं। प्रारम्भ में ये मंदिर सादे थे और इनमें स्तंभ अलंकृत नही थे। शिखरों के स्थान पर छत सपाट होती थी और गर्भगृह में भगवान की प्रतिमा, ऊँची जगती आदि होते थे। गर्भगृह के समक्ष स्तंभों पर आश्रित एक छोटा अथवा बड़ा बरामदा भी मिलने लगा। यही परम्परा बाद के कालों में प्राप्त होती है।
पहले हमें समझना चाहिए कि मंदिर की संरचना के कौन कौन से विशेष हिस्से होते हैं। इनमें शिखर या विमानम्, गर्भगृह, कलश, गोपुरम, रथ, उरुशृंग, मण्डप, अर्धमण्डप, जगति, स्तम्भ, परिक्रमा या प्रदक्षिणा, शुकनास, तोरण, अन्तराल, गवाक्ष, अमलक और अधिष्ठान। भारतीय उपमहाद्वीप तथा विश्व के अन्य भागों में स्थित मन्दिर विभिन्न शैलियों में निर्मित हुए हैं। मंदिरों की कुछ प्रमुख शैलियाँ में द्रविड़ शैली, नागर शैली, बेसर शैली, पगोडा शैली और सन्धार शैली प्रमुख हैं।

नागर शैली :
नागर शैली का प्रसार हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत माला तक देखा जा सकता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर शैली के मंदिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है। विकसित नागर मंदिर में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं। एक ही अक्ष पर एक दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है।

द्रविड़ शैली :
यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविण शैली कहलाती है। इसमें मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के उपर का भाग पिरामिडनुमा सीधा होता है। जिसमें अनेक मंजिलें होती हैं। इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह हे कि ये काफी ऊॅंचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं। प्रागंण का मुख्य प्रवेश द्वार ‘गोपुरम्’ कहलाता है। चोल काल के मंदिर द्रविड़ शैली के सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है।

बेसर शैली :
बेसर का शाब्दिक अर्थ है मिश्रित। नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को बेसर की संज्ञा दी गई है। यह विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर शैली का होता है। दो विभिन्न शैलियों के कारण उत्तर और दक्षिण के विस्तृत क्षेत्र के बीच सतह एक क्षेत्र बन गया, जहां इनके मिश्रित रूप में बेसर शैली हुई। इस शैली के मंदिर विंध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी तक निर्मित है लेकिन कला का क्षेत्र असीम है।

पगोडा शैली :
पैगोडा शैली नेपाल और इण्डोनेशिया के बाली टापू में प्रचलित हिन्दू मंदिर स्थापत्य है। इस शैली में छतों की शृंखला अनुलम्बित रूप में एक के ऊपर दूसरा रहता है। अधिकांश गर्भगृह भूतल स्तर में रहता है। परन्तु कुछ मन्दिर (उदाहरण: काठमांडू का आकाश भैरव और भीमसेनस्थान मन्दिर) में गर्भगृह दूसरी मंजिल पर स्थापित है। कुछ मन्दिर का गर्भगृह काफी ऊंचाई पर निर्मित होते है (उदाहरण: भक्तपुर का न्यातपोल मन्दिर), जो भूस्थल से करीब 3-4 मंजिल के ऊंचाई पर स्थित होता है। इस शैली में निर्मित प्रसिद्ध मन्दिर में नेपाल का पशुपतिनाथ, बाली का पुरा बेसाकि आदि प्रमुख है।

सन्धार शैली :
इस शैली के मन्दिरों में वर्गाकार गर्भगृह को घेरे हुए एक स्तंभों वाली वीथिका (गैलरी) होती थी। इस वीथिका का उद्देश्य गर्भगृह की प्रदक्षिणा था। इस प्रकार सन्धार शैली में प्रदक्षिणा पथ हुआ करता है।

निरन्धार शैली :
इस शैली के मन्दिरों में प्रद्क्षिणा पथ नहीं होता है।

सर्वतोभद्र शैली :
इस शैली के मन्दिरों में चार प्रवेशद्वार होते हैं, जो चारों मुख्य दिशाओ में होते हैं। इसको घेरे हुए 12 स्तंभों वाला प्रदक्षिणापथ भी होता है। इस प्रकार के मन्दिरों में सभी दिशाओ से प्रवेश मिलता है।(फीचर)
(लेखक ऑल इंडिया वैश्य फेडरेशन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री हैं। आधुनिक और प्राचीन वास्तुकला में विशेष रुचि रखते हैं।)

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